शुक्रवार, 9 मई 2025

सिद्धार्थ रामु (दुबे)

सिद्धार्थ रामु (दुबे ) 
यह अपनी जातीय पहचान छुपाते हैं जैसी जानकारी है यह गोरखपुर मंडल के दुबे हैं। 

Siddharth Ramu  (7h )· 

पांडेय जी ( यूट्यूबर-इतिहासकार अशोक पांडेय), क्या आप जीएन. साईंबाबा को खुद की तरह कैरियरिस्ट बुद्धिजीवी समझते हैं। अरुंधती राय के साथ बस्तर के आदिवासियों से जोड़कर इलाहाबाद-पटना और दिल्ली के जिन साथियों को आपने कैरियरिस्ट-बुद्धिजीवी इन शब्दों में कहा, “अहिंसा का पाठ तो इन्होंने बस्तर में भी नहीं पढ़ाया जिसके नाम पर दिल्ली/पटना/इलहाबाद के पढे-लिखे लोग बुद्धिजीवी बन गए और आदिवासी शिकार होते रहे।  किताबें लिखीं, वाहवाही और रॉयल्टी बटोरी और यूरोप चली गईं।” 

साईं बाबा दिल्ली में रहते थे, वे बुद्धिजीवी तो थे, लेकिन आपकी तरह कैरियरिस्ट बुद्धिजीवी नहीं, क्रांतिकारी बुद्धिजीवी थे।जैसे मैंने वादा किया था, इलाहाबाद, पटना और दिल्ली के उन कुछ साथियों  के बारे में एक-एक बताऊंगा, जिनकी ओर आप ने गंदे इशारे किए हैं- फिलहाल जीएन. साईंबाबा के बारे में। कुछ ज्यादा नहीं, सिर्फ इतना शहादत के बाद उनकी अंतिम विदाई कैसे हुई। दुखद, लेकिन गर्व करने लायक संयोग यह था कि मैं भी वहां मौजूद था, सब अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना। पांडेय आप अपने भीतर झांकने की क्षमता बहुत पहले खो चुके हैं, लेकिन साईंबाबा के आइने में एक बार अपना चेहरा देखिए, आपको अपना चेहरा बहुत विकृत नजर आएगा और अंदर की संवेदना-चेतना कलुषित। शायद आपको शर्म भी आए 

जीएन साईबाबा: ‘जिस धज से वह मकतल को गया’ हैदराबाद में अंतिम विदाई, जैसा देखा

जिस धज से कोई मकतल में गया

वो शान सलामत रहती है 

ये जान तो आनी जानी है

इस जां की तो कोई बात नहीं

                                                      फै़ज़ अहमद फै़ज़

अक्सर मौत  विछुड़ने का गम़ देकर जाती है, किसी के न होने का खालीपन, वह व्यक्ति यदि आत्मीय है, तो अपने ही किसी हिस्से के हमेशा-हमेशा के लिए खो देने का अहसास। लेकिन कोई-कोई मौत ऐसी होती है, जो इस सब के साथ ही लोगों के सभी उदात्त इंसानी भावों को एक साथ, एक ही समय में जगा देती है। 

ऐसी ही मौत जीएन साईबाबा की रही। हैदराबाद में उनको अंतिम विदाई देने पहुंचे लोगों के आखों में एक तरफ आंसू, नम आखें थीं, चेहरों पर दर्द की परत-दर-परत थी, तो ठीक उसी समय  लोगों के चेहरों पर गुस्सा, आक्रोश, दुनिया को सबसे के लिए खूबसूरत बनाने का स्वप्न, इंसानियत के दुश्मनों को सबक सिखाने का संकल्प, मेहनतकशों, गरीबों, आदिवासियों, दलितों और हाशिए के अन्य लोगों के संघर्षों में हिस्सेदारी का जज्ब़ा भी दिख रहा था। 

साईबाबा को अंतिम विदाई देने आए लोग उन्हें फूल और लाल चादर ऐसे समर्पित कर रहे थे, जैसे खुद को उनके सपनों-संकल्पों, साहस, जन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और शोषण-उत्पीड़न और हर तरह के अन्याय के खात्में के उनके स्वप्न को साथ जोड़ रहे हों। वहां आंसू थे, दर्द के साथ, जोहार, इंकलाब और लाल सलाम का नारा भी गूंज रहा था। 

एक के बाद एक क्रांतिकारी गीतों का सिलसिला ऐसे आगे बढ़ रहा था, जैसे लोग साईबाबा से कह रहे हों, आप भले ही हमारे बीच नहीं रहे, आपकी विरासत जिंदा है। हम आपकी विरासत को आगे बढ़ाएंगे। उसके लिए हर जरूरी कुर्बानी देंगें। आप जिनकी जिंदगी से दुख-दर्दों को, अपमान को, अन्याय को, शोषण-उत्पीड़न को दूर करने लिए जिए और मरे, हम उन्हें उनके हाल पर नहीं छोड़ेगे, उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे, उनके साथ कंधा से कंधा मिलाकर, उनके हाथों में हाथ डालकर संघर्ष जारी रखेगें। कारवां रूकने नहीं पाएगा, आगे बढ़ता रहेगा। तेलंगाना-श्रीकाकुलम और दंडकारण्य के क्रांतिकारी संघर्षों की विरासत ठप्प नहीं पड़ेगी, रूकने नहीं पाएगी, आगे बढ़ेगी, नई मंजिल छुएगी। जुल्म के हर रूप  के खिलाफ हम खड़े हैं, खडे होंगे, खड़े रहेंगे। एकजुट होकर संघर्ष करेंगे। ताकतवर से ताकवर निज़ाम भी हमें झुंका नहीं पाएगा, हमारे संकल्प-साहस को तोड़ नहीं पाएगा, हमेंं खरीद नहीं पाएगा, हमारी एकजुटता को खत्म नहीं कर पाएगा, चाहे वह आज का फासीवादी हिंदू-कार्पोरेट गठजोड़ का निजाम नहीं क्यों न हो। यह चीजें उन श्रद्धांजलियों में भी अभिव्यक्त हो रही थीं, जो लोग साईबाबा के प्रति प्रकट कर रहे थे।

साईबाबा की अंतिम विदाई में उनके जेल जीवन के संगी, उनके संघर्षों के साथी, देश के कोने-कोने में मजदूरों, आदिवासियों, दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों के लिए संघर्ष कर रहे लोग भी थे। उनकी पत्नी, बेटी, भाई और अन्य सगे-संबंधी तो थे ही। सबसे बड़ी बात यह कि तेलंगाना की क्रांतिकारी विरासत को अपने-अपने तरीकों से आगे बढ़ा रहे करीब सभी संगठनों के प्रतिनिधि भी थे। ऐसा लग रहा था कि साईबाबा ऐसे व्यक्तित्व हों, जिन्होंने क्रांतिकारी-प्रगतिशील संगठनों के बीच की सभी दीवारों को तोड़ दिया हो। 

वामपंथी संगठनों की सभी धाराओं-ग्रुपों के लोग थे, सब समान जज्बे के साथ अंतिम विदाई दे रहे थे। एक बाद-एक अलग-अलग वामपंथी धाराओं और मजदूरों-किसानों, दलितों, आदिवासियों के संगठनों के लोग समूह में आर रहे थे। जोहार-लाल सलाम के साथ के साथ उन्हें अतिम विदाई दे रहे थे। क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत कर रहे थे। फूल-माला और चादर पेश करे रहे थे। तनी मुट्ठियां और चेहरे क्रांतिकारी संकल्प और भावों की अभिव्यक्ति कर रहे थे। सबके चेहरों से ऐसा लग रहा था कि  कोई उनका अपना ही विदा हो रहा है, हमेशा-हमेशा के लिए।

वामपंथी, दलित और आदिवासी संगठनों के साथ मुख्य धारा की राजनीति पार्टियां के नेता भी, जिन वजहों से सही साईबाबा के अंतिम विदाई में शामिल हुए। उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुती की। तेलगांगना राष्ट्रीय समिति ( टीआरएस) के नेता केसीआर ( पूर्व मुख्यमंत्री) भी उन्हें अंतिम विदाई देने का आए थे, भले ही उनकी करतूतों को याद कर साईबाबा को चाहने वालों ने उन्हें गेट में घुसने नहीं दिया, उन्हें लौट जाने को बाध्य कर दिया। विधायक, सांसद, पूर्व विधायक, पूर्व सासंद, राज्य सभा के सदस्य भी आए। शायद तेलंगाना और दक्षिण में साईबाबा का व्यक्तित्व का इतना बड़ा था कि दक्षिण की सभी पार्टियों को उनके प्रति अपनी सकारात्मक श्रद्धांजलि प्रस्तुत करनी पड़ी। इसमे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन भी शामिल हैं।

सबसे बड़ी बात की इस विदाई में छात्र-नौजवान और युवा पीढ़ी शामिल थी। सब के सब एक स्वर से उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प जाहिर कर रहे थे। साईबाबा के व्यक्तित्व, संघर्ष और विचारों ने कैसे उनकी दुनिया बदली, कैसे  हाशिए के लोगों के प्रति उनके सरोकारों को गहरा किया, उन्हें क्रांतिकारी बदलाव और क्रांतिकारी संघर्ष के मायने सिखाए। उसके लिए कुर्बानी का जज्बा भरा, उन्हें कुर्बानी का मतलब सिखाया, कैसे उन्हें निडर बनाया, कैसे-कैसे शक्तिशाली से शक्तिशाली निजाम से टकराने का हौसला दिया। कुछ के जीवन की दिशा ही बदल दी। सब के सब एक स्वर से उनके अधूरे कामों को आगे बढ़ाने, उनके सपनों को पूरा करने की बात कर रहे थे, कह रहे थे।

महिलाओं की उपस्थिति भी ध्यान आकर्षित करने वाली थी। हजारों लोगों के इस समूह में कम से कम एक तिहाई महिलाएं थीं। वह केवल मूकर्दशक नहीं थी, वह वहां चल रहे संघर्षों में हिस्सेदार थीं। उनके लिए साईबाबा एक प्रेरणादीय साथी थे, जो आदिवासियों, दलितों, मजदूरों के संघर्षों के साथी तो ही, पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं के अपने विशिष्ट संघर्ष के भी साथी थी। एक ऐसा सहकर्मी जो अन्याय विरोधी, शोषण-उत्पीड़न विरोधी सभी संघर्षों की एकजुटता का हिमायती था, इस एकजुटता के लिए रात-दिन एक किए हुए था। वहां आईं युवा लड़कियां, अपने-अपने स्तर पर किसी न किसी संघर्ष में शामिल हैं, उनमें कुछ विश्वविद्यालय कैम्पसों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ( ABVP) के ब्राह्मणवादी-वर्ण-जातिवादी, स्त्री-विरोधी, जन विरोधी विचारों और गतिविधियों के खिलाफ बने संयुक्त मोर्चे की सदस्य हैं। उनके लिए अपनी आजादी के साथ औरो की आजादी भी उतनी ही मायने रखती है। वे अपनी आजादी के साथ सबकी आजादी के संघर्ष में शामिल हैं।

वहां एक सबसे बड़ी बात यह दिखी कि यदि राजसत्ता-पुलिस तंत्र और न्यायपालिका किसी संगठन या व्यक्ति पर माओवादी-नक्सली होने का ठप्पा लगा दे तो, लोग उसे ‘अछूत’ नहीं बना देते हैं, जैसा कि कई बार हिंदी पट्टी में दिखता है। वहां के वामपंथी संगठनों, आदिवासी संगठनों, दलित संगठनों और महिला संगठनों के लिए वे संगठन और व्यक्ति ‘अछूत’नहीं हैं, जिन पर राज्य ने माओवादी-नक्सली का ठप्पा लगा रखा है। जैसे ठप्पा साईबाबा पर भारतीय राज्य, पुलिसा-तंत्र और न्यायपालिका ने लगा रखा था। 

वहां के क्रांतिकारी-प्रगतिशील और दलित-आदिवासी-महिला संगठन इस तरह के संगठनों और व्यक्तियों  को अपने आंदोलन का जरूरी और महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। उन्हें उतना ही अपना मानते हैं,जितना किसी अन्य अन्याय विरोधी, शोषण-उत्पीड़न विरोधी संगठन को मानते हैं। उनके भीतर राज्य का यह डर नहीं दिखा रहा था कि यदि आप माओवादी-नक्सलावादी संगठन और व्यक्ति के साथ खड़े होंगे, तो उसकी आंच आप भी आ सकती है, आप राज्य के निशाने पर हो जाएंगे। लेकिन यह मामला एकतरफ नहीं है, वहां के ऐसे संगठन और व्यक्ति भी खुद को अन्य संगठनों-व्यक्तियों से महान नहीं मानते, जिन पर माओवादी-नक्सली होने का ठप्पा नहीं लगा है या उनके तरीकों-रास्तों से सहमत नहीं हैं। जिन्हें वहां माओवादी-नक्सली धारा कहा जाता है, वे लोग भी अन्य वामपंथी संगठनों को संशोधनवादी कहकर रात-दिन गाली नहीं देते है या आंबेडकरवादी कहकर सुधारवादी या बुर्जुआ कहकर अपने से दूर नहीं ढ़केलते। यह चीज साईबाबा की अंतिम विदाई में भी नहीं दिखी। 

अपनी-अपनी सांगठनिक-वैचारिक पहचानों के साथ खड़े होकर भी लोग उन्हें अपना, पूरा का पूरा अपना मानकर अंतिम विदाई दे रहे थे। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह  है कि वहां जमीन पर संघर्ष चल रहा है, जमीनी संघर्षों में लोगों की सक्रिय हिस्सेदारी हैं, सबको सबकी जरूरत है, सब के सब संघर्षों के साथी हैं। विचारों में, विश्लेषण में, लाइन के सवाल पर, दिशा के सवाल पर, रणनीति और कार्यनीति के सवाल पर असहमति है, बहस-मुबाहिसा है, तीखा वैचारिक संघर्ष है, लेकिन जमीन पर संघर्षों में एक साझापन है, जो गहरे स्तर सबको जोड़े हुए है। सब एक दूसरे की जरूत है, सबको एक स्वप्न जोड़ता है। दुश्मन के हमले से बचाव के लिए सबको एक दूसरे के साथ की जरूरत है। हो सकता है, साईबाबा उनको जोड़ने वाली एक कड़ी भी रहे हों। जो भी हो सब-सब साईबाबा को अपना मानकर अंतिम विदाई दे रहे थे।

साईबाबा को अंतिम विदाई देने आए लोग भले ही कुछ हजार की संख्या में रहे हों, लेकिन वहां पूरा भारत दिख रहा था। सभी सामाजिक-वर्गीय-लैंगिक, भाषायी और क्षेत्रीय समूहों के लोग थे। हर उम्र, हर रूप-रंग, हर बोली-बानी और भेष-भूषा के लोग थे। लगा था कि जैसे वे एक ऐसे इंसान को अंतिम विदाई देने आए हों, जो सबका प्रतिनिधित्व करता हो। जो सबके लिए संघर्ष करता रहा हो। 

साई बाबा का व्यक्तिगत संघर्ष और उसकी उलब्धियां भी भीतर-भीतर लोगों को गहरे स्तर प्रेरणा दे रही थीं। यह एक भूमिहीन, दलित और दूर-दराज के गांव में पैदा एक 90 प्रतिशत शारीरिक तौर पर विकलांग व्यक्ति, व्यक्तिगत तौर पर वह सब कुछ हासिल कर लेता है, जो वह चाहता है। जिसके पिता बचपन में चल बसे। मां मजदूरी करके अपने बच्चे को पढ़ाती है, जो घिसट-घिसट कर स्कूल जाता है, जो विश्वविद्यालय की पढाई पूरा करता है, पीएच-डी करता है, देश के नामी-गिरामी विश्वविद्यालय में शिक्षक ( प्रोफेसर) बनता है। दुनिया के ज्ञान-विज्ञान को अपने भीतर जज्ब करता है। व्यक्तिगत उपलब्धियों को अपनी व्यक्तिगत उन्नति का, सुख का, पद पाने का साधन नहीं बनाता। जो कुछ हासिल करता है, उसे दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए अर्पित कर देता है। जिसे राजसत्ता डरा नहीं पाती, जिसके साहस को तोड़ नहीं पाती, जिसके उर्बर मस्तिष्क को काम करने से रोकने के लिए 10 सालों तक उसे कैद रखती है। उसे फासी की सजा तो नहीं दे पाती, लेकिन मार देने के सारे तरीके अपनाती है और अंत में मार डालती है। फिर भी वह मरता नहीं, लाखों लोगों के आखों में जिंदा हो जाता है, उनके दिलों में धड़कने लगता है, उनके सपनों में जी उठता है। 

मौत कुछ घंटों बाद उनकी आंखें किसी दूसरे की आंख बनने के लिए दे दी गईं। भले ही उनकी आंखें किसी जो मौत के बाद किसी और के लिए अर्पित कर दी गईं, किसी एक व्यक्ति या दो व्यक्ति की आंखें बनी हों। लेकिन साईबाबा की विचारों की आखें, उनकी दिल की धड़कने तो लाखों लोगों की आखें बन गई, उनकी दिलों की धड़कने बन गईं।

जैसे साईबाबा की जिंदगी शानदार रही, उनकी अंतिम विदाई भी शानदार रही। जनचौक के महेंद्र के साथ मैं भी उनकी अंतिम  शानदार विदाई के इस पल को देख पाया, मेरे लिए भी यह एक ऐतिहासिक पल था। अंतिम सलाम जीएन साईबाबा। उम्मीद है आप 21सदी के भारत के एक आइकन बनेंगे।

"नफरत की आग में जलता हमेशा बेगुनाहों का सिंदूर है"

 युद्ध का यही सच है जो भी टिप्पणीकार कुछ भी बकवास कर रहे हैं वह इसके विपरीत लिख करके बता दे कि वह क्या चाहते हैं। डॉक्टर साहब ने इस युद्ध के सारी जांच का वैज्ञानिक सच अपने शब्दों में कर दिया  है इससे बढ़िया और कोई उल्लेख नहीं हो सकता। बहुत-बहुत बधाइयां।

*यह पोस्टर इस युद्ध का सच बयां कर रहा है 

युद्ध पर लिखी गयी यह कविता केवल भारत नहीं वैश्विक विचारों को उजागर करती है, कविता के माध्यम से रचनाकार ने समय के सच और शातिर मानसिकता के भयावह सोच को उजागर किया है, सैनिक और युद्ध के प्रभाव में आने वाले जनसामान्य के कष्ट को दुश्मन और दोस्त के भेद के बिना प्रस्तुत किया गया है।  किसी टिप्पणीकार ने यह भी लिखा है की पाक को ही क्यों चीन को क्यों नहीं आजतक आँख दिखाने की हिम्मत की गयी। जो बहुतेरे सवाल खड़े करते हैं। 



- डॉ ओम शंकर 
"नफरत की आग में जलता हमेशा बेगुनाहों का सिंदूर है"
युद्ध कभी जीवन नहीं देता —
वो सिर्फ़ छीनता है…
माँ की ममता, पिता की उम्मीद,
बहन की राखी, पत्नी का सुहाग,
और ग़रीब की बसी-बसाई दुनिया।
ये लड़ाईयाँ नहीं होतीं देश की रक्षा के लिए,
ये होती हैं सत्ता के स्वार्थ और अहंकार की बलिवेदी —
जहाँ शहीद वही होता है,
जो झोपड़ी में जन्मा होता है,
जिसके हाथ में कभी कलम होनी चाहिए थी,
पर उसकी हथेली पर थमा दी गई एक बंदूक,
और सीने पर टाँक दी गई "राष्ट्रभक्ति" की एक नकली पट्टी।
हर बार वही जलता है —
जो खेत जोतता था,
जिसके बच्चे भूखे सोते थे,
जो साइकिल से कलेक्ट्रेट जाता था नौकरी मांगने,
पर लौटता है अब तिरंगे में लिपटा हुआ —
सीधे श्मशान… सीधे शून्यता।
वो स्त्रियाँ —
जो शहीद की विधवा बनती हैं,
वो राजमहलों में नहीं जन्मतीं,
वो तो ग़रीब की बेटियाँ होती हैं,
जिनकी गोद सुनी हो जाती है
और मांग उजड़ जाती है
उस युद्ध में
जो किसी और की सत्ता, कुर्सी और चुनावी जीत के लिए लड़ा गया था।
पत्नी अपने शाहिद सीने के टुकड़े से कहती हैं:
मैं कितनी खुश थी, आंखों में कितने सपने थे
जिस सिंदूर से तूने मेरी मांग भरी थी,
आज "ऑपरेशन सिंदूर" ने
उसी सिंदूर को चिता की राख बना दिया।
तेरे स्पर्श, तेरी मुस्कान,
तेरा वादा — “जल्दी लौटूंगा”,
सब कुछ खाक हो गया
उन हुक्मरानों की नफ़रत में
जो हमें मोहरे समझते हैं — इंसान नहीं।
तू लौटा तो सही,
मगर बिना आवाज़ के,
तिरंगे की चुप्पी में लिपटा —
एक शहीद…
पर मेरे लिए तो बस एक टूटा सपना।
अब मेरी मांग में कोई रंग नहीं,
सिर्फ़ तेरी चिता की राख है,
जिसमें तेरी साँसें, तेरी यादें, तेरी अधूरी ज़िंदगी सिसकती है।
और अब मेरा बस एक अभिशाप है —
हे प्रकृति…
एक दिन ऐसा भी आए,
जब जिनकी कलम से युद्ध का फ़ैसला लिया जाता है,
उनके दरवाज़े पर भी तिरंगे में लिपटी उनके अपनों की लाश हो।
उनकी रसोई में भी
एक दिन वो निवाला अटक जाए
जो उन्होंने किसी युद्ध की जीत के जश्न में उठाया हो —
और उनके घरों में भी वो सन्नाटा गूंजे
जिसके दर्द को सिर्फ़ शहीद की माँ समझती है।
शायद तब...
शायद तभी वो जानेंगे
कि युद्ध सिर्फ़ रणभूमि में नहीं,
गरीब के आँगन में भी हर रोज़ लड़ा जाता है —
जहाँ हर जीत, एक चिता की आग से होकर गुज़रती है।
और हाँ,
क्यों कभी किसी अमीर, किसी सत्ता के वारिस,
या पूँजीपति के घर पैदा नहीं होता है वो शाहिद और देशभक्त,
जो सरहद पर जान देने जाता है?
नहीं...
वो सिर्फ़ आदेश देते हैं —
मरता हमेशा वही है
जिसके पास खोने को बस एक माँ होता है।
हर युद्ध में हारता हमेशा गरीब और निर्दोष है,
जीतता हमेशा पूंजीपति, धूर्त, शातिर, नफरतकारी, कुलीन और सत्ताधारी हीं है.....