शुक्रवार, 9 मई 2025

"नफरत की आग में जलता हमेशा बेगुनाहों का सिंदूर है"

 युद्ध का यही सच है जो भी टिप्पणीकार कुछ भी बकवास कर रहे हैं वह इसके विपरीत लिख करके बता दे कि वह क्या चाहते हैं। डॉक्टर साहब ने इस युद्ध के सारी जांच का वैज्ञानिक सच अपने शब्दों में कर दिया  है इससे बढ़िया और कोई उल्लेख नहीं हो सकता। बहुत-बहुत बधाइयां।

*यह पोस्टर इस युद्ध का सच बयां कर रहा है 

युद्ध पर लिखी गयी यह कविता केवल भारत नहीं वैश्विक विचारों को उजागर करती है, कविता के माध्यम से रचनाकार ने समय के सच और शातिर मानसिकता के भयावह सोच को उजागर किया है, सैनिक और युद्ध के प्रभाव में आने वाले जनसामान्य के कष्ट को दुश्मन और दोस्त के भेद के बिना प्रस्तुत किया गया है।  किसी टिप्पणीकार ने यह भी लिखा है की पाक को ही क्यों चीन को क्यों नहीं आजतक आँख दिखाने की हिम्मत की गयी। जो बहुतेरे सवाल खड़े करते हैं। 



- डॉ ओम शंकर 
"नफरत की आग में जलता हमेशा बेगुनाहों का सिंदूर है"
युद्ध कभी जीवन नहीं देता —
वो सिर्फ़ छीनता है…
माँ की ममता, पिता की उम्मीद,
बहन की राखी, पत्नी का सुहाग,
और ग़रीब की बसी-बसाई दुनिया।
ये लड़ाईयाँ नहीं होतीं देश की रक्षा के लिए,
ये होती हैं सत्ता के स्वार्थ और अहंकार की बलिवेदी —
जहाँ शहीद वही होता है,
जो झोपड़ी में जन्मा होता है,
जिसके हाथ में कभी कलम होनी चाहिए थी,
पर उसकी हथेली पर थमा दी गई एक बंदूक,
और सीने पर टाँक दी गई "राष्ट्रभक्ति" की एक नकली पट्टी।
हर बार वही जलता है —
जो खेत जोतता था,
जिसके बच्चे भूखे सोते थे,
जो साइकिल से कलेक्ट्रेट जाता था नौकरी मांगने,
पर लौटता है अब तिरंगे में लिपटा हुआ —
सीधे श्मशान… सीधे शून्यता।
वो स्त्रियाँ —
जो शहीद की विधवा बनती हैं,
वो राजमहलों में नहीं जन्मतीं,
वो तो ग़रीब की बेटियाँ होती हैं,
जिनकी गोद सुनी हो जाती है
और मांग उजड़ जाती है
उस युद्ध में
जो किसी और की सत्ता, कुर्सी और चुनावी जीत के लिए लड़ा गया था।
पत्नी अपने शाहिद सीने के टुकड़े से कहती हैं:
मैं कितनी खुश थी, आंखों में कितने सपने थे
जिस सिंदूर से तूने मेरी मांग भरी थी,
आज "ऑपरेशन सिंदूर" ने
उसी सिंदूर को चिता की राख बना दिया।
तेरे स्पर्श, तेरी मुस्कान,
तेरा वादा — “जल्दी लौटूंगा”,
सब कुछ खाक हो गया
उन हुक्मरानों की नफ़रत में
जो हमें मोहरे समझते हैं — इंसान नहीं।
तू लौटा तो सही,
मगर बिना आवाज़ के,
तिरंगे की चुप्पी में लिपटा —
एक शहीद…
पर मेरे लिए तो बस एक टूटा सपना।
अब मेरी मांग में कोई रंग नहीं,
सिर्फ़ तेरी चिता की राख है,
जिसमें तेरी साँसें, तेरी यादें, तेरी अधूरी ज़िंदगी सिसकती है।
और अब मेरा बस एक अभिशाप है —
हे प्रकृति…
एक दिन ऐसा भी आए,
जब जिनकी कलम से युद्ध का फ़ैसला लिया जाता है,
उनके दरवाज़े पर भी तिरंगे में लिपटी उनके अपनों की लाश हो।
उनकी रसोई में भी
एक दिन वो निवाला अटक जाए
जो उन्होंने किसी युद्ध की जीत के जश्न में उठाया हो —
और उनके घरों में भी वो सन्नाटा गूंजे
जिसके दर्द को सिर्फ़ शहीद की माँ समझती है।
शायद तब...
शायद तभी वो जानेंगे
कि युद्ध सिर्फ़ रणभूमि में नहीं,
गरीब के आँगन में भी हर रोज़ लड़ा जाता है —
जहाँ हर जीत, एक चिता की आग से होकर गुज़रती है।
और हाँ,
क्यों कभी किसी अमीर, किसी सत्ता के वारिस,
या पूँजीपति के घर पैदा नहीं होता है वो शाहिद और देशभक्त,
जो सरहद पर जान देने जाता है?
नहीं...
वो सिर्फ़ आदेश देते हैं —
मरता हमेशा वही है
जिसके पास खोने को बस एक माँ होता है।
हर युद्ध में हारता हमेशा गरीब और निर्दोष है,
जीतता हमेशा पूंजीपति, धूर्त, शातिर, नफरतकारी, कुलीन और सत्ताधारी हीं है.....


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